गीता प्रेस, गोरखपुर >> बड़ों के जीवन से शिक्षा बड़ों के जीवन से शिक्षाहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत है बड़ों के जीवन से शिक्षा कैसे लेनी चाहिए....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
मनुष्य नित्य शिक्षार्थी है और उसे सदा-सर्वदा सावधान रहकर जहाँ-तहाँ से
शिक्षा ग्रहण करते रहना चाहिये। यह शिक्षा बड़ों के जीवन से विशेषरूप से
मिलती है और बड़े वही हैं जिनके जीवन में दूसरों को ऊँचा उठाने योग्य
आदर्श बातें हों। ऐसे ही बड़े पुरुषों के जीवन-परिचय के साथ उनके कुछ
महत्त्वपूर्ण प्रसंग इस पुस्तक में संकलित किये गये हैं। हमारे विद्वान्
लेखक ने यह बहुत ही सुन्दर संकलन थोड़े-से शब्दों में कर दिया है। आशा है,
हमारे बालक और तरुण इससे विशेष लाभ उठावेंगे।
हनुमान प्रसाद पोद्दार
बड़ों के जीवन से शिक्षा
सत्यवादी महाराज हरिश्चन्द्र
सूर्यवंश में त्रिशंकु बड़े प्रसिद्ध राजा हुए हैं। उनके पुत्र हुए महाराज
हरिश्चन्द्र। महाराज इतने प्रसिद्ध सत्यवादी और धर्मात्मा थे कि उनकी
कीर्ति से देवताओं के राजा इन्द्र को भी डाह होने लगी। इन्द्र ने महर्षि
विश्वामित्र को हरिश्चन्द्र की परीक्षा लेने के लिये उकसाया। इन्द्र के
कहने से महर्षि विश्वामित्रजी ने राजा हरिश्चन्द्र को योगबल से ऐसा
स्वप्न् दिखलाया कि राजा स्वप्न में ऋषि को सब राज्य दान कर रहे हैं।
दूसरे दिन महर्षि विश्वामित्र अयोध्या आये और अपना राज्य माँगने लगे।
स्वप्न् में किये दान को भी राजा ने स्वाकीर कर लिया और विश्वामित्रजी को
सारा राज्य दे दिया।
महाराज हरिश्चन्द्र पृथ्वीभर के सम्राट् थे। अपना पूरा राज्य उन्होंने दान कर दिया था। अब दान की हुई भूमि में रहना उचित न समझकर स्त्री तथा पुत्र के साथ वे काशी आ गये; क्योंकि पुराणों में यह वर्णन है कि काशी भगवान् शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अतः वह पृथ्वी में होने पर भी पृथ्वी से अलग मानी जाती है।
अयोध्या से जब राजा हरिश्चन्द्र चलने लगे तब विश्वामित्रजी ने कहा—‘जप, तब, दान आदि बिना दक्षिणा दिये सफल नहीं होते। तुमने इतना बड़ा राज्य दिया है तो उसकी दक्षिणा में एक हजार सोने की मोहरें और दो।’
राजा हरिश्चन्द्र के पास अब धन कहाँ था। राज्य-दान के साथ राज्य का सब धन तो अपने-आप दान हो चुका था। ऋषि से दक्षिणा देने के लिये एक महीने का समय लेकर वे काशी आये। काशी में उन्होंने अपनी पत्नी रानी शैव्या को एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया। राजकुमार रोहिताश्व बहुत छोटा बालक था। प्रार्थना करने पर ब्राह्मण ने उसे अपनी माता के साथ रहने की आज्ञा दे दी। स्वयं अपने को राजा हरिश्चन्द्र ने एक चाण्डाल के हाथ बेच दिया और इस प्रकार ऋषि विश्वामित्र को एक हजार मोहरें दक्षिणा में दीं।
महारानी शैव्या अब ब्राह्मण के घर में दासी का काम करने लगीं। चाण्डाल के सेवक होकर राजा हरिश्चन्द्र श्मशानघाट की चौकीदारी करने लगे। वहाँ जो मुर्दे जलाने को लाये जाते, उनसे कर लेकर तब उन्हें जलाने देने का काम चाण्डाल ने उन्हें सौंपा था।
एक दिन राजकुमार रोहिताश्व ब्राह्माण की पूजा के लिये फूल चुन रहा था कि उसे साँप ने काट लिया। साँप का विष झटपट फैल गया और रोहिताश्व मरकर भूमि पर गिर पड़ा। उसकी माता महारानी शैव्या को न कोई धीरज बँधाने वाला था और न उनके पुत्र की देह श्मशान पहुँचाने वाला था। वे रोती-बिलखती पुत्र की देह को हाथों पर उठाये अकेली रात में श्मशान पहुँचीं। वे पुत्र की देह को जलाने जा रही थीं कि हरिश्चन्द्र वहाँ आ गये और मरघट का कर माँगने लगे। बेचारी रानी के पास तो पुत्र की देह ढकने को कफन तक नहीं था। उन्होंने राजा को स्वर से पहिचान लिया और गिड़गिड़ाकर कहने लगीं—‘महाराज ! यह तो आपका ही पुत्र मरा पड़ा है। मेरे पास कर देने को कुछ नहीं है।’
राजा हरिश्चन्द्र को बड़ा दुःख हुआ; किन्तु वे अपने धर्म पर स्थिर बने रहे। उन्होंने कहा—‘रानी ! मैं यहाँ चाण्डाल का सेवक हूँ । मेरे स्वामी ने मुझे कह रखा है कि बिना कर दिये कोई मुर्दा न जलाने पावे। मैं अपने धर्म को नहीं छोड़ सकता। तुम मुझे कुछ देकर तब पुत्र की देह जलाओ।’
रानी फूट-फूट कर रोने लगी और बोलीं—‘मेरे पास तो यही एक साड़ी है, जिसे मैं पहिने हूँ, आप इसी में आधा ले लें।’ जैसे ही रानी अपनी साड़ी फाड़ने चली, वैसे ही वहाँ भगवान् नारायण, इन्द्र, धर्मराज आदि देवता और महर्षि विश्वामित्र प्रकट हो गये। महर्षि विश्वामित्र ने बताया कि कुमार रोहित मरा नहीं है। यह सब तो ऋषि ने योगमाया से दिखलाया था। राजा हरिश्चन्द्र को खरीदने वाले चाण्डाल के रूप में साक्षात् धर्मराज थे।
सत्य साक्षात् नारायण का स्वरूप है। सत्य के प्रभाव से राजा हरिश्चन्द्र शैव्या के साथ भगवान् के धाम को चले गये। महर्षि विश्वामित्र ने राजकुमार रोहिताश्व को अयोध्या का राजा बना दिया। सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के सम्बन्ध में यह दोहा प्रसिद्ध है—
महाराज हरिश्चन्द्र पृथ्वीभर के सम्राट् थे। अपना पूरा राज्य उन्होंने दान कर दिया था। अब दान की हुई भूमि में रहना उचित न समझकर स्त्री तथा पुत्र के साथ वे काशी आ गये; क्योंकि पुराणों में यह वर्णन है कि काशी भगवान् शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अतः वह पृथ्वी में होने पर भी पृथ्वी से अलग मानी जाती है।
अयोध्या से जब राजा हरिश्चन्द्र चलने लगे तब विश्वामित्रजी ने कहा—‘जप, तब, दान आदि बिना दक्षिणा दिये सफल नहीं होते। तुमने इतना बड़ा राज्य दिया है तो उसकी दक्षिणा में एक हजार सोने की मोहरें और दो।’
राजा हरिश्चन्द्र के पास अब धन कहाँ था। राज्य-दान के साथ राज्य का सब धन तो अपने-आप दान हो चुका था। ऋषि से दक्षिणा देने के लिये एक महीने का समय लेकर वे काशी आये। काशी में उन्होंने अपनी पत्नी रानी शैव्या को एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया। राजकुमार रोहिताश्व बहुत छोटा बालक था। प्रार्थना करने पर ब्राह्मण ने उसे अपनी माता के साथ रहने की आज्ञा दे दी। स्वयं अपने को राजा हरिश्चन्द्र ने एक चाण्डाल के हाथ बेच दिया और इस प्रकार ऋषि विश्वामित्र को एक हजार मोहरें दक्षिणा में दीं।
महारानी शैव्या अब ब्राह्मण के घर में दासी का काम करने लगीं। चाण्डाल के सेवक होकर राजा हरिश्चन्द्र श्मशानघाट की चौकीदारी करने लगे। वहाँ जो मुर्दे जलाने को लाये जाते, उनसे कर लेकर तब उन्हें जलाने देने का काम चाण्डाल ने उन्हें सौंपा था।
एक दिन राजकुमार रोहिताश्व ब्राह्माण की पूजा के लिये फूल चुन रहा था कि उसे साँप ने काट लिया। साँप का विष झटपट फैल गया और रोहिताश्व मरकर भूमि पर गिर पड़ा। उसकी माता महारानी शैव्या को न कोई धीरज बँधाने वाला था और न उनके पुत्र की देह श्मशान पहुँचाने वाला था। वे रोती-बिलखती पुत्र की देह को हाथों पर उठाये अकेली रात में श्मशान पहुँचीं। वे पुत्र की देह को जलाने जा रही थीं कि हरिश्चन्द्र वहाँ आ गये और मरघट का कर माँगने लगे। बेचारी रानी के पास तो पुत्र की देह ढकने को कफन तक नहीं था। उन्होंने राजा को स्वर से पहिचान लिया और गिड़गिड़ाकर कहने लगीं—‘महाराज ! यह तो आपका ही पुत्र मरा पड़ा है। मेरे पास कर देने को कुछ नहीं है।’
राजा हरिश्चन्द्र को बड़ा दुःख हुआ; किन्तु वे अपने धर्म पर स्थिर बने रहे। उन्होंने कहा—‘रानी ! मैं यहाँ चाण्डाल का सेवक हूँ । मेरे स्वामी ने मुझे कह रखा है कि बिना कर दिये कोई मुर्दा न जलाने पावे। मैं अपने धर्म को नहीं छोड़ सकता। तुम मुझे कुछ देकर तब पुत्र की देह जलाओ।’
रानी फूट-फूट कर रोने लगी और बोलीं—‘मेरे पास तो यही एक साड़ी है, जिसे मैं पहिने हूँ, आप इसी में आधा ले लें।’ जैसे ही रानी अपनी साड़ी फाड़ने चली, वैसे ही वहाँ भगवान् नारायण, इन्द्र, धर्मराज आदि देवता और महर्षि विश्वामित्र प्रकट हो गये। महर्षि विश्वामित्र ने बताया कि कुमार रोहित मरा नहीं है। यह सब तो ऋषि ने योगमाया से दिखलाया था। राजा हरिश्चन्द्र को खरीदने वाले चाण्डाल के रूप में साक्षात् धर्मराज थे।
सत्य साक्षात् नारायण का स्वरूप है। सत्य के प्रभाव से राजा हरिश्चन्द्र शैव्या के साथ भगवान् के धाम को चले गये। महर्षि विश्वामित्र ने राजकुमार रोहिताश्व को अयोध्या का राजा बना दिया। सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के सम्बन्ध में यह दोहा प्रसिद्ध है—
चन्द्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार।
वै दृढ़व्रत हरिश्चन्द्र को, टरै न सत्य विचार।।
वै दृढ़व्रत हरिश्चन्द्र को, टरै न सत्य विचार।।
महाराज रघुका दान
महाराज रघु अयोध्या के सम्राट थे। वे भगवान् श्रीराम के प्रपितामह थे।
उनके नाम से ही उनके वंश के क्षत्रिय रघुवंशी कहे जाते हैं। एक बार महाराज
रघुने एक बड़ा भारी यज्ञ किया। जब यज्ञ पूरा हो गया तब महाराज ने
ब्राह्मणों तथा दीन-दुःखियों को अपना सब धन दान कर दिया। महाराज इतने बड़े
दानी थे कि उन्होंने अपने आभूषण, सुन्दर वस्त्र और सब बर्तन तक दान कर
दिये। महाराज के पास साधारण वस्त्र रह गया। वे मिट्टी के बर्तनों से काम
चलाने लगे।
यज्ञ में जब महाराज रघु सर्वस्व दान कर चुके, तब उनके पास वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स नाम के एक ब्राह्मण कुमार आये। महाराज ने उनको प्रणाम किया, आसन पर बैठाया और मिट्टी के गड़ुवे से उनके पैर धोये। स्वागत-सत्कार हो जाने पर महाराज ने पूछा—‘आप मेरे पास कैसे पधारे हैं ? मैं क्या सेवा करूँ ?’
कौत्स ने कहा—‘महाराज ! मैं आया तो किसी काम से ही था किंतु आपने तो सर्वस्व दान कर दिया है। मैं आप-जैसे महादानी उदार पुरुष को संकोच में नहीं डालूँगा।’
महाराज रघु ने नम्रता से प्रार्थना की—‘आप अपने आने का उद्देश्य तो बता दें।’
कौत्स ने बताया कि उनका अध्ययन पूरा हो गया है। अपने गुरुदेव के आश्रम से घर जाने से पहले गुरुदेव से उन्होंने गुरुदक्षिणा माँगने की प्रार्थना की। गुरुदेव ने बड़े स्नेह से कहा—‘बेटा ! तूने यहाँ रह कर जो मेरी सेवा की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ मेरी गुरुदक्षिणा तो हो गयी। तू संकोच मत कर। प्रसन्नता से घर जा।’ लेकिन कौत्स ने जब गुरुदक्षिणा देने का हठ कर लिया तो गुरुदेव को क्रोध आ गया।
यज्ञ में जब महाराज रघु सर्वस्व दान कर चुके, तब उनके पास वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स नाम के एक ब्राह्मण कुमार आये। महाराज ने उनको प्रणाम किया, आसन पर बैठाया और मिट्टी के गड़ुवे से उनके पैर धोये। स्वागत-सत्कार हो जाने पर महाराज ने पूछा—‘आप मेरे पास कैसे पधारे हैं ? मैं क्या सेवा करूँ ?’
कौत्स ने कहा—‘महाराज ! मैं आया तो किसी काम से ही था किंतु आपने तो सर्वस्व दान कर दिया है। मैं आप-जैसे महादानी उदार पुरुष को संकोच में नहीं डालूँगा।’
महाराज रघु ने नम्रता से प्रार्थना की—‘आप अपने आने का उद्देश्य तो बता दें।’
कौत्स ने बताया कि उनका अध्ययन पूरा हो गया है। अपने गुरुदेव के आश्रम से घर जाने से पहले गुरुदेव से उन्होंने गुरुदक्षिणा माँगने की प्रार्थना की। गुरुदेव ने बड़े स्नेह से कहा—‘बेटा ! तूने यहाँ रह कर जो मेरी सेवा की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ मेरी गुरुदक्षिणा तो हो गयी। तू संकोच मत कर। प्रसन्नता से घर जा।’ लेकिन कौत्स ने जब गुरुदक्षिणा देने का हठ कर लिया तो गुरुदेव को क्रोध आ गया।
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